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________________ गोत्रकमेपर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख ३७९ वर्तमान उत्कृष्ट सकलसंयम - लब्धिस्थान होता है। ये सब सकलसयमग्रहणके प्रथम समयमे होनेवाले आर्य - म्लेच्छभूमिज मनुष्यविषयक सयम-लव्धिस्थान 'प्रतिपद्यमानस्थान' कहलाते हैं । 'यहाँ आर्यखडज और म्लेच्छखडज मनुष्यो के मध्यम स्थान – जघन्य और उत्कृष्ट स्थानोके बीच के स्थान — मिथ्यादृष्टिसे वा असयतसम्यग्दृष्टिसे अथवा देशसयत से सकलसयमको प्राप्त होनेवालेके सभाव्य होते हैं । क्योकि विधि-निपेधका नियम न कहा जाने पर सभवकी प्रतिपत्ति होती है, ऐसा न्यायसिद्ध है । यहाँ दोनो जघन्य स्थान यथायोग्य तीव्रसक्लेशाविष्टके और दोनो उत्कृष्ट स्थान मदसक्लेशाविष्टके होते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिये ।' 'म्लेच्छभूमिज अर्थात् म्लेच्छखण्डोमे उत्पन्न होनेवाले मनुष्योके सकलसयमका ग्रहण कैसे संभव हो सकता है ? ऐसी शका नही करनी चाहिये, क्योकि दिग्विजयके समयमे चक्रवर्ती के साथ जो म्लेच्छराजा आर्यखडको आते हैं और चक्रवर्ती आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्धको प्राप्त होते हैं उनके सकलसयमके ग्रहणका विरोध नही है — अर्थात् जब उन्हे सकलसयमके लिये अपात्र नही समझा जाता तब उनके दूसरे सजातीय म्लेच्छबन्धुओ को अपात्र कैसे कहा जा सकता है और कैसे उनके सकलसयमग्रहणकी सम्भावनासे इनकार किया जा सकता है ? कालान्तरमे वे भी आर्यखण्डको आकर सकलसयम - ग्रहण कर सकते हैं, इससे शका निर्मूल है । अथवा उन म्लेच्छोकी जो कन्याएँ चक्रवर्ती आदिके साथ विवाहित होती हैं उनके गर्भ से उत्पन्न होनेवाले मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ कहलाते हैं, उनके सकलसयम सभव होने से भी म्लेच्छभूमिज मनुष्योके सकलसयम - ग्रहणकी सभावना
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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