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________________ ३७६ युगवीर-निवन्धावली चक्रवर्ती आदिके साथ विवाहित होती है उनके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले मातृपक्षकी अपेक्षा स्वय अकर्मभूमिज (म्लेच्छ) होते हैंअकर्मभूमिककी सन्तान अकर्मभूमिक, इस दृष्टिसे-वे भी यहाँ विवक्षित हैं-उनके भी सकलसयमकी पात्रता और सयमका उक्त जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। इसलिए कुछ भी विप्रतिपिद्धा नही है-दोनोके तुल्यवलका कोई विरोध नहीं है, अर्थात् एकको सकलसयमका पात्र और दूसरेको अपात्र नही कहा जा सकता; क्योकि उस प्रकारकी दोनो ही जातिवालोंके दीक्षाग्रहणकी योग्यताका प्रतिपेध नहीं है अर्थात् मागम अथवा सिद्धान्त ग्रन्थोमे न तो उस जातिके म्लेच्छोके लिये सकलसयमकी दीक्षाका निपेध है जो उक्त म्लेच्छखण्डोमेसे किसी भी आहवा (अथवा) = १ "सम्बन्धस्य प्रकारान्तरोपदर्शने', २ "पूर्वोक्तप्रकारापेक्षया प्रकारान्तरत्वधोतने ." -अभिधानराजेन्द्र वा = "वा स्याद्विक्ल्पोपमयोरिबार्थेऽपि समुच्चये ।" -विश्वलोचन कोश, सिद्धान्तकौ० तत्त्ववो० टी० 'अर्थ' शब्द भी 'समुच्चय' के अर्थमे आता है। यथा"अधेति मङ्गलाऽनन्तरारम्भप्रश्नकालाधिकारप्रतिज्ञासमुच्चयेषु ।" --सिद्धान्तकौ० तत्त्ववी० टी० 'अहवा' के प्रयोगका निम्न उदाहरण भी ध्यान देने योग्य है : "आहारे धरिद्धि पवट्ठइ, चउचिहु चाउ जि एहु पवट्ठइ अहवा दुट्टवियप्पहँ चाए, चाउ जि एहु सुणहु रामवाए ।" दशलाक्षणिकधर्मजयमाला १ विप्रतिपेध --"तुल्यवलविरोयो विप्रतिषेध.।" “The opposition of two courses of action which are equally important, the conflict of two even-matched interests" VS Apte
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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