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________________ गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर - लेख ३७३ है, और भगवज्जिनसेनके निम्न वाक्यसे तो यहाँ तक स्पष्ट है कि म्लेच्छखण्डोके म्लेच्छ धर्मकर्मसे बहिर्भूत होने के सिवाय और सब बातोमे आर्यावर्त के ही समान आचारके धारक हैं धर्मकर्मवहिर्भूता इत्यमी म्लेच्छका मताः । अन्यथाऽन्यैः समाचारैरार्यावर्तेन ते समाः ॥ - आदिपुराण, पर्व ३१, श्लोक १४२ साथ ही, यह सिद्ध किया जा चुका है कि शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक जातिके म्लेच्छ आर्यखण्ड के ही आदिम निवासी ( कदीमी बाशिन्दे ) हैं - प्रथम चक्रवर्ती भरतकी दिग्विजयके पूर्व से ही वे यहाँ निवास करते हैं -- लेच्छखण्डोसे आकर बसने वाले नही हैं । ऐसी हालतमे यद्यपि म्लेच्छखण्डज म्लेच्छोकी सकलसयमकी पात्रताका विचार कोई विशेष उपयोगी नही है और उससे कोई व्यावहारिक नतीजा भी नही निकल सकता, फिर भी चूँकि इस विपयकी चर्चा पिछले लेखोमे उठाई गई है ओर शास्त्रीजीने अपने प्रस्तुत उत्तर - लेखमे भी उसे दोहराया है, अत इसका स्पष्ट विचार भी यहाँ कर देना उचित जान पडता है । नीचे उसीका प्रयत्न किया जाता है - श्रीजयधवल नामक सिद्धान्त ग्रन्थ मे 'सयमलब्धि' नामक एक अनुयोगद्वार ( अधिकार ) है | सकलसावद्य - कर्मसे विरक्ति - लक्षणको लिये हुए पचमहाव्रत, पचसमिति और तीनगुप्तिरूप जो सकलसयम है उसे प्राप्त होनेवालेके विशुद्धिपरिणामका नाम सयमलब्धि है और वही मुख्यतया उक्त अनुयोगद्वारका विषय है । इस अनुयोगद्वारमे आर्यखडके मनुष्योकी तरह म्लेच्छखंडोके मनुष्य को भी सकलसयमका पात्र बतलाया है और उनके विशुद्धि
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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