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________________ ३६४ युगवीर-निवन्धावली इससे पाठकोके सामने कितनी ही नई-नई बाते प्रकाशमे आएंगी और वे सब उनकी ज्ञानवृद्धि तथा वस्तुतत्त्वके यथार्थ निर्णयमे सहायक होगी - (१) म्लेच्छोके मूल भेद दो अथवा तीन है---१ कर्मभूमिज, २ अन्तरद्वीपज रूपसे दो भेद और १ आर्यखण्डोद्भव, २ म्लेच्छखण्डोद्भव तथा ३. अन्तरद्वीपज रूपसे तीन भेद है। शक-यवनशवरादिक आर्यखण्डोद्भव म्लेच्छ है-आर्यखण्डमे उत्पन्न होते है, म्लेच्छखण्डोमे उत्पन्न होनेवाले अथवा वहाँके विनिवासी । कदीमी बाशिन्दे ) नहीं है, जैसा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है .--- आर्यखण्डोदुभवा आर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः । म्लेच्छखण्डोदभवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ।। -तत्त्वार्थसार अर्थात--आर्यखण्डमे उत्पन्न होनेवाले मनुष्य प्राय. करके तो 'आर्य' है, परन्तु कुछ शकादिक 'म्लेच्छ' भी है। बाकी म्लेच्छखण्डो तथा अन्तरद्वीपोमे उत्पन्न होनेवाले सब मनुष्य 'म्लेच्छ' हैं। प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री म्लेच्छोके म्लेच्छखण्डोद्भव और अन्तरद्वीपज ऐसे दो भेद ही करते हैं और शक-यवनादिकको म्लेच्छखण्डोसे आकर आर्यखण्डमे बसनेवाले म्लेच्छ बतलाते हैं । साथ ही, यह भी लिखते हैं कि आर्यखण्डोद्भव कोई म्लेच्छ होते ही नही, आर्यखण्डमे उत्पन्न होनेवाले सब आर्य ही होते हैं, यहाँ तक कि म्लेच्छखण्डोसे आकर आर्यखण्डमे बसनेवालोकी सन्तान भी आर्य होती है, शकादिकको किसी भी आचार्यने आर्यखण्डमै उत्पन्न होनेवाले नही लिखा, विद्यानन्दाचार्यने भी यवनादिकको
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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