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________________ गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख फेरके साथ बाबू सूरजभानजीके विपयमे कहे गये अपने उन शब्दोको वापिस भी ले रहे हैं जिनकी सूचना इस लेखके शुरूमे की गई है। साथ ही मेरे लिये जिन कटुक शब्दोका प्रयोग किया गया है उसपर लेखके अन्तमे अपना खेद भी व्यक्त कर रहे है-लिख रहे हैं कि "नोटोका उत्तर देते हुए मेरी लेखनी भी कही-कही तीव्र हो गई है और इसका मुझे खेद है ।" ऐसी हालतमे शास्त्रीजीका पूरा लेख छापकर और उसकी पूरी आलोचना करके पाठकोके समय तथा शक्तिका दुरुपयोग करना और व्यर्थकी अप्रिय चर्चाको आगे बढाना उचित मालूम नहीं होता। अत उज्र-माजरत, सफाई-सचाई तथा व्यक्तिगत आक्षेप और कटुक आलोचनाकी बातोको छोडकर, जो बाते गोत्रकर्मकी प्रस्तुत चर्चासे खास सम्बन्ध रखती हैं उन्हीपर यहाँ सविशेपरूपसे विचार किये जानेकी जरूरत है। विचारके लिये वे विवादापन्न बातें सक्षेपमे इस प्रकार हैं -- (१) म्लेच्छोके मूल भेद कितने हैं ? और शक, यवन, शवर तथा पुलिन्दादिक म्लेच्छ आर्यखण्डोद्भव है या म्लेच्छखण्डोद्भव ? (२) शक, यवन, शवर और पुलिन्दादिक म्लेच्छ सकलसयमके पात्र हैं या कि नही ? (३) वर्तमान जानी हुई दुनियाके सब मनुष्य उच्चगोत्री हैं या कि नही ? (४) श्री जयधवल' और लब्धिसार-जैसे सिद्धान्त-ग्रन्थोके अनुसार म्लेच्छखण्डोके सव' मनुष्य सकलसयमके पात्र एव उच्चगोत्री है या कि नही ? | इन सब बातोका ही नीचे क्रमश विचार किया जाता है, जिसमे शास्त्रीजीकी तद्विपयक चर्चाकी आलोचना भी रहेगी।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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