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________________ ३६२ युगवीर-निवन्धावली विचारकी कोई नई सामग्री-कोई नया प्रमाण-~सामने रखता हुआ नजर नहीं आता। उन्ही वातोको प्राय उन्ही शब्दोमे फिर-फिरसे दोहराकर—अपने लेखके, वकील साहबके लेखके तथा मेरे नोटोके वाक्योको जगह-जगह और पुन -पुन उद्धृत करके--अपनी वातको पुष्ट करनेका निष्फल प्रयत्न किया गया है। इस तरह प्रस्तुत उत्तरलेखको फिजूलका विस्तार दिया गया है और १४ बडे पृष्ठोका अर्थात् पौने दो फार्मके करीवका होगया है, उसे ज्योका त्यो पूरा छापकर यदि तुर्की-वतुर्की जवाब दिया जावे तो समूचे लेखका कलेवर चार फार्मसे ऊपरका हो जावे और पढनेवालोको उसपरसे बहुत ही कम वात हाथ लगे। मैं नही चाहता कि इस तरह अपने पाठकोका समय व्यर्थ नष्ट किया जाय। शास्त्रीजीके पिछले लेखको पढकर कुछ विचारशील विद्वानोने मुझे इस प्रकारसे लिखा भी है कि-"परिमित स्थानवाले पत्रमे ऐसे लम्बे-लम्बे लेखोका प्रकाशन, जिनमे प्रतिपाद्य वस्तु अधिक कुछ न हो, वाछनीय नही है । शास्त्रीय प्रमाणोको 'ऐसी' और 'इसमे' के शाब्दिक जजालमे नही लपेटना चाहिए। वे प्रमाण तो स्पष्ट है जैसा कि आपने अपने नोटमे लिखा है । म्तेच्छोमे सयमको पात्रतासे इनकार तो नही किया जा सकता।" साथ ही, मुझे यह भी पसन्द नही है कि कटुक शब्दोकी पुनरावृत्तिद्वारा उनकी परिपाटीको आगे बढाकर अप्रिय चर्चाको अवसर दिया जाय। हमारा काम प्रेमके साथ खुले दिलसे वस्तुतत्वके निर्णयका होना चाहिये--मूल बातको ‘ऐसी' और 'इसमे' के प्रयोग-जैसी लफ्जी (शाब्दिक ) बहसमे डालकर किसी भी शब्द-छलसे काम न लेना चाहिये। उधर शास्त्रीजी कुछ हेर
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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