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________________ गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर लेस ३६१ अर्थ 'ऐसी' ही लिखा था, वादको जब वे उन प्रमाणोका निष्कर्ष निकालने वैठे तो उन्होने मूलके शब्दोका पूरा अनुसरण न करके-निष्कर्पमे मूलके शब्दोका पूरा अनुसरण किया भी नही जाता और न लाजिमी ही होता है-उसे अपने शब्दोमे दिया था। उस निष्कर्षमै 'इसमे' शव्दका प्रयोग देखकर शास्त्रीजीने उसे बलात् 'इति' शब्दका अर्थ बतलाते हुए कहा था कि 'इति' शब्दका 'इसमे' अर्थ नहीं होता, 'इसमे' अर्थ करनेसे बडा अनर्थ हो जायगा और उस अनर्थको सूचित करनेके लिये तीन लम्बे-लम्बे उदाहरण घडकर पेश किये थे, जिनसे उनके लेखमे व्यर्थका विस्तार होगया था। ऐसी हालतमे उनका लेख अनेकान्तमे दिये जानेके योग्य अथवा कुछ विशेप उपयोगी न होते हुए भी महज इस गर्जसे दे दिया गया था कि न देनेसे कही यह न समझ लिया जाय कि विरोधी लेखोको स्थान नहीं दिया जाता। साथ ही उसकी नि सारता आदिको व्यक्त करते हुए कुछ सम्पादकीय नोट भी लेखपर लगा दिये गये थे। मेरे उन नोटोको पढकर शास्त्रीजीको कुछ क्षोभ आया है और उसी क्षोभको हालतमे उन्होने एक लम्वासा लेख लिखकर मेरे पास भेजा है। लेखमे पद-पदपर लेखकका क्षोभ मूर्तिमान नजर आता है और उसमें मेरे लिये कुछ कटुक शब्दोका प्रयोग भी किया गया है, जिन्हे यहाँ उद्धृत करके पाठकोके हृदयोको कलुपित करनेकी मैं कोई ज़रूरत नही समझता। क्षोभके कारण मेरे नोटोपर कोई गहरा विचार भी नही किया जा सका और न उसे जरूरी ही समझा गया है-क्षोभमे ठीक विचार बनता भी नही-यो ही अपना क्षोभ व्यक्त करनेको अथवा महज़ उत्तरके लिये ही उत्तर लिखा गया है। इसीसे यह उत्तर-लेख भी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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