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________________ ३५२ युगवीर-निवन्धावली अधिक और कुछ भी नही है, जिसे मैंने अपनी पुस्तकके उक्त पैराग्राफमे व्यक्त किया है। उक्त प्रतिज्ञाके अनुसार रावणने उन सब पराई स्त्रियोको सेवन करनेके लिये अपनेको खुला रख छोडा था जो उससे रजामन्द हो जॉय अथवा दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि व्यभिचारिणी परस्त्रियोसे व्यभिचार करनेकी उसने परमिट लेरक्खी थी। प्रतिज्ञाकी यह प्रकृति ही इस बातको सूचित करती है कि रावण परदार-लम्पट था। ऐसे परस्त्री-लोलुप रावणको लेखकजी सदाचारी कहे या व्यभिचारी यह तो उनकी इच्छाकी बात है, मैने तो अपने उक्त पैराग्राफ मे इतना ही लिखा है कि रावण 'परस्त्री-सेवनका त्यागी नही था' और 'परस्त्री-लम्पट विख्यात है'। और इन दोनो बातोका काफी सबूत ऊपर दिया जा चुका है। अधिकके लिये पद्मपुराणादि ग्रन्थोको उपपत्ति-चक्षुसे देखना चीहिये। उनके देखनेसे लेखकजीका वह भ्रम भी दूर हो जायगा जिसके कारण वे लिख रहे हैं कि "रावणकी इस प्रतिज्ञाके कारण ही सतीका सतीत्व नष्ट नही हुआ"-मानो सीता रावणपर आसक्त थी और उससे भोग करना चाहती थी, परन्तु रावणके कामभोगके त्यागकी प्रतिज्ञा होनेसे वह उसकी इच्छाको पूरा नही कर सका और इसीसे उसका सतीत्व नष्ट होनेसे बच गया । वाह, कैसी विचित्र कल्पना और बुद्धिका कितना अजीब विकास है जिसने लेखकजीको ऐसी हास्यास्पद वार्ता लिखनेका साहस प्रदान किया है ।। लेखकजीको खूब समझ लेना चाहिये कि सीता वास्तवमे सती थी, उसके सतीत्वकी रक्षामे रावणका अनोखा ब्रह्मचर्य कोई कारण नही, किन्तु सतीका तेज और आत्मबल ही उसका मुख्य कारण रहा है । क्या उन्हे मालूम नही है कि कितनी ही सतियोके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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