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________________ अनोखा तर्क और अजीव साहस ! ३५१ - न होवे अर्थात् मुझे न इच्छे ।' और तव प्रगट रूपसे यह नियम लिया कि . ' जो परस्त्री मुझे नही इच्छेगी — मुझसे रजामन्द नही होगी - मैं उसे ग्रहण नही करूँगा - उससे बलात् विषय-भोग नही करूँगा ।' यथा : रत्नदीपं प्रविप्रस्य यथा भ्रमति मानसं । इदं वृत्तं तथैवास्य परमाकुलतां गतं ॥ ३५८ ॥ अथास्य मानसं चिन्ता भोगानुरक्त-चित्तस्य समारूढेयमुत्कटा । व्याकुलतामुपेयुपः ॥ ३५६ ॥ स्थूल- प्राणि-वधादिभ्यो विरतिं गृहवासिनां । एकमपि न शक्तोऽहं कर्तु कान्यत्र संकथा ॥ ३६१ ॥ मत्तेभ-सदृशं चेतस्तद्भावत्सर्ववस्तुषु । हस्तेनेवात्मभावेन धर्तुं न प्रभवाम्यहम् ॥ ३६२ ॥ किमेकमाश्रयास्येतं नियम शोभनामपि । अवष्टंभामि नानिच्छामन्ययोपां वलादिभिः ।। ३६५ ।। प्रमदोत्तमा । यद्वा लोकत्रये नाऽसौ विद्यते दृष्ट्वा मां विकलत्वं या न व्रजेन्मन्मथार्दिता ॥ ३६७ ॥ भगवन्न मया नारी परस्येच्छा-विवर्जिता । गृहीतव्येति नियमो ममायं कृत - निश्वयः ॥ ३७१ ॥ इन सब प्रमाणोसे स्पष्ट है कि रावण काम - भोगका त्यागी नही था, बल्कि भोगोमे आसक्त - चित्त प्राणी था, उसे अपने चित्त पर जरा भी कावू नही था और इसलिये वह कोई छोटा-सा भी नियम लेनेमे हिचकता था । उसने जो उक्त ली थी उसे लेते समय भी अपनी धारणाके अनुसार प्राय यह सोच लिया था कि उससे उसके इच्छित विषय-भोगोके सेवनमे कोई बाधा उपस्थित नही होगी और उस प्रतिज्ञाका रूप उससे छोटी-सी प्रतिज्ञा
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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