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________________ अनोखा तर्क और अजीव साहस ! ३४९ ऐसे शब्द एक परदार-लम्पट कामुकके नही तो और किसके हो सकते हैं ? उसने तो सीताके रजामन्द न होनेपर और मन्दोदरी रानीके उसे छोड देनेकी सातिशय प्रेरणा करनेपर भी यहाँ तक कहा कि 'यह सीता तो मेरे प्राणोके साथ ही छूट सकेगी।' और हनुमानजीको उत्तर देते हुए यह भी कहा कि 'सब रत्न मेरे है, खासकर स्त्री-रत्नोका तो मैं ही स्वामी हूँ,' 'मेरे योग्य जो वस्तु (सीता) है उसको स्वीकार करनेसे-पत्नी रूपमे अगीकार करनेसे-यदि मेरी अपकीति भी होती है तो होने दो—मुझे उसकी पर्वाह नही है ।' यथा - समं प्राणैरियं त्याज्ये त्यागात्स कुपितः पुरम् ॥ ३४७॥ ममैव सर्वरत्नानि स्त्रीरत्नं तु विशेषतः॥४१६ ॥ मद्योग्य-वस्तु-स्वीकारादपकीर्तिश्चेद् भवेन्मम ॥ ४२४॥ ये सब शब्द भी रावणकी परदार-लम्पटता और अतिशय कामुकताके ज्वलत उदाहरण है और इसलिये हनुमानजीने लका पहुँचकर रावणको धिक्कारते हुए जो उसे धर्मका उल्लघन करनेवाला परदाराभिलाषुक (परदार-लम्पट ) कहा है और पाप-कर्मका अद्भुत विपाक प्रकट किया है वह ठीक ही है। इसी वातको गुणभद्राचार्यने निम्न वाक्यके द्वारा उल्लेखित किया है और एक दूसरे वाक्यमे रावणके लिये 'दुरात्मा' तथा 'दुश्चरित्र' जैसे विशेषणोका प्रयोग करना भी उचित समझा है। यथा - अहो पापस्य कोऽप्येष विपाकोऽयमीदृशः । किल धिग्धर्ममुलंध्य परदाराभिलाषुकः ॥ २०२॥ व्याजहार दुरात्मानं दुश्चरित्र-दशाननं ॥ ४१६ ॥ इतने पर भी लेखक महाशय रावणको कामभोगका त्यागी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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