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________________ ३४८ युगवीर-निवन्धावली विषयभोगोका त्याग अथवा शरीरसे मैथुनकर्मके त्यागका होता है । रावणने किसी समय भी ऐसा त्याग-व्रत नही लिया-उसे तो सहस्रो स्त्रियोका भोक्ता लिखा है। तव अपनी ओरसे एक बिना सिर-पैरके नये व्रतकी कल्पना करके उसे शिक्षित समाजके सामने हेतु-रूपमे प्रस्तुत करना और ऐसे असिद्ध-हेतुके द्वारा अपने मनोरथ ( साध्य ) की सिद्धि चाहना लेखकका अजीव साहस और अनोखा तर्क नही तो और क्या है ? लेखकको इतना भी समझ नही पडा कि उसकी कल्पनाके अनुसार जब रावण 'कामभोगका त्यागी' था तो उसने सीताका हरण क्यो किया ? किसलिये अपनी दूती आदिको भेजकर उसने सीताको बहकानेफुसलाने तथा डरा-धमकाकर अपना पत्नीत्व स्वीकार करानेकी चेष्टा की।' और वह खुद क्यो सीताके पास प्रणयकी याचना करनेके लिये गया और उसने क्यो ऐसे दीन वचन कहे कि'हे प्रिये । रामकी आशा छोडकर अब तुम मेरी आशा पूरी करो, यह काम तो अवश्य होनेवाला है फिर तुम देरी क्यो कर रही हो। तुम चाहे रोओ या हँसो, मैं तो तुम्हारा महमान हूँ। हे कान्ते । तुम मेरी सुन्दर-स्त्रियोकी शिरोमणि बनो।' जैसाकि उत्तरपुराण पर्व ६८ के निम्न वाक्योसे प्रकट है - तस्मात्तदाशासुज्झित्वा मदाशां पूरय प्रिये! अवश्यंभाविकार्येऽस्मित् किं कालहरणेन ते ॥ ३३३ ।। हसंत्याश्च रुदंत्याश्च तव प्राघूर्णिकोऽस्म्यहं । मत्कान्तकान्तासन्ताने कांते चूलामणिर्भवेत् ॥ ३३४ ॥ १. रावण सीत' ने अपनी पत्नी बनाना चाहता था यह बात खुद उसकी पटरानी मन्द मम्न वाक्यसे भी प्रकट है :'त्वा मे भावयितु वेष्टि सपत्नी खेचराधिपः ।' - उत्तरपुराण, पर्व ६८-३५२
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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