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________________ ३४६ युगवीर-निवन्धावली लेख खुद इतना नि सार और तर्कहीन है कि पत्र-सपादकजी उसे प्रकाशित भी नही करना चाहते थे। जैनमित्रमे उसके प्रकाशनका आभारी प० मगलसेनजीके अत्याग्रह एव अभिमानपूर्ण पत्रको ही समझिये । प्रकाशित करते समय सपादकजीने उसपर जो नोट दिया है वह उक्त लेखकी निस्सारताको प्रगट करनेके लिये पर्याप्त है, और ऐसी हालतमे मुझे कुछ भी लिखनेकी ज़रूरत नही थी। मेरे पास इतना समय भी नही है कि मैं ऐसे थोथे लेखोके उत्तर-प्रत्युत्तरमे पडूं-मुझे तो ऐसे लेग्यकोंके साहस और उनके अनोखे तर्कको देखकर बडा ही दुःख होता है। ये लोग अपना तो समय व्यर्थ नष्ट करते ही हैं, दूसरोका भी अमूल्य समय नष्ट करना चाहते हैं, यह बडे ही खेदका विषय है। लेखमे चूकि मुझसे कुछ आशकाओका गर्वपूर्वक उत्तर माँगा गया है और उधर सपादकजीने भी अपने नोटमे विशेष समाधानके लिये मेरी ओर इशारा किया है, इसीसे लेखकके अनोखे तर्क और अजीव साहसको व्यक्त करते हुए यहाँ पर कुछ शब्दोका लिख देना उचित जान पडता है। इसीका नीचे प्रयत्न किया जाता है : मेरी उक्त पुस्तकके जिस पैराग्राफपर आपत्ति की गई है वह इस प्रकार है : "लंकाधीश महाराज रावण परस्त्री-सेवनका त्यागी नहीं था, प्रत्युत परस्त्री-लम्पट विख्यात है। इसी दुर्वासनासे प्रेरित होकर ही उसने प्रसिद्ध सती सीताका हरण किया था। इस विषयमें उसकी जो कुछ भी प्रतिज्ञा थी वह एतावन्मात्र ( केवल इतनी) थी कि "जो कोई भी परस्त्री मुझको नहीं इच्छेगी, में उससे बलात्कार नहीं करूँगा।" नहीं कह सकते कि उसने कितनी परस्त्रियोंका, जो किसी भी कारणसे उससे रजामन्द
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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