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________________ अनोखा तर्क और अजीब साहस ! : १३ : 'जनमित्र' के अंक ४१ सन् १९३७ मे एक लेख प्रकट हुआ है, जिसका शीर्षक है "क्या रावण व्यभिचारी था ?" उस लेखके प्रकटरूपमे लेखक तो प ० विहारीलालजी शास्त्री अम्वाला छावनी है । परन्तु जैनमित्र - सपादकने प० मगलसेनजी वेदविद्याविशारद अम्बालाके अत्याग्रह और अभिमानपूर्ण उलाहनेके पत्रपरसे यह मालूम किया है कि उक्त लेखके वास्तविक लेखक स्वनामधन्य प० मगलसेनजी ही हैं और वे अपने लेखको दूसरे के नामसे छपा रहे हैं । यदि यह सत्य है तो कहना होगा कि प० मगलसेनजी 'टट्टीकी ओटमे शिकार खेलना' अथवा 'बुर्का ओढकर मैदान में आना' चाहते हैं । अस्तु, मुझे इससे कोई मतलब नही कि लेखके लेखक कौन हैं— मेरे लिये उत्तरकी दृष्टिसे प० मगलसेनजी और प० बिहारीलालजी दोनो ही समान हैं। मुझे तो आश्चर्य इस बातका है कि २४ वर्षसे भी अधिक समय बीत जानेके बाद प्रतिवादका यह क्योकि मेरी जिस 'जिन - पूजाधिकार मीमासा' पैराग्राफको लेकर उक्त लेख लिखा गया है वह अप्रैल सन् १९१३ में प्रकाशित हुई थी, जब कि प० गोपालदासजी वरैया जैसे प्रसिद्ध विद्वान् मौजूद थे और किसीने भी उक्त लेखपर आपत्ति नही की थी । प० मगलसेनजी जैसे विद्वानोके परिचयमे भी वह उसी वक्त से है । हो सकता था कि इतने वर्षोंके प्रयत्नके बाद लेखक महाशयको कोई नई खास बात हाथ लगी होती और वह उनके लेखका कारण वन जाती, परन्तु ऐसा भी मालूम नही होता - प्रयत्न कैसा । पुस्तक के एक E
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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