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________________ ३१४ युगवीर-निवन्धावली देखते हैं और यह वात हालके उनके उस पत्रसे प्रकट है जिसका एक अश 'यदि यूरोपमे ऐसा पत्र प्रकाशित होता' इस शीर्षकके नीचे पृ० ६५१ पर दिया गया है और जिसमे उन्होंने पत्रकी भारी उपयोगिताका उल्लेख करते हुए उसके चिरजीवनके लिये प्रोपेगैडा करनेका परामर्श दिया है और साथ ही अपनी सहायताका भी वचन दिया है। और उधर वैरिप्टर साहब है, जो अपनी तथा अपने मित्रकी शान और मानरक्षाके लिये व्यर्थ लिखना भी उचित समझते हैं और जरासी बातके ऊपर इतने रुष्ट हो गये हैं कि उन्होंने 'अनेकान्त' के गुणोकी तरफसे अपनी दृष्टिको बिलकुल ही बन्द कर लिया है, उन्हे अव यह नजर ही नहीं आता कि 'अनेकान्त' कोई महत्वका काम कर रहा है अथवा उसके द्वारा कोई काविल तारीफ काम हुआ है, अनेकान्तकी नीति भी उन्हे उम्दा (उत्तम) दिखलाई नही देती, अनेकान्तके नामको सार्थक बनानेका कोई प्रयत्न उसके सम्पादकने अभी तक किया है यह भी उन्हे दीख नही पडता-सुन नही पडता, सहधर्मी वात्सल्यकी पत्रमे उन्हें कही बू नही आती और जैनत्वकी भी कुछ गध नही आती और इसलिये इन सब बातोका किसी-न-किसी रूप मे इजहार करते हुए फिर आप यहाँ तक लिखते हैं "वह पत्र क्या काम कर सकेगा जो सच्चे जवाहरातमे ही ऐव निकाल निकाल कर दूसरोको अपने सत्यवक्तापनेकी घोषणा दे ! और जो चॉदके ऊपर धूल फेकनेको ही अपना कर्तव्य समझ बैठे।" "यह याद रहे कि यह पत्र मात्र ऐतिहासिक या पुरातत्त्वका पत्र नही है। जैनियोने जो हजारो रुपयेका चन्दा किया है, वह
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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