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________________ एक विलक्षण आरोप ३१३ स्थान दिया भी जाता तो उसके कलेवरसे फुटनोटोंका कलेवर कई गुना बढ़ जाता और तब वैरिष्टर साहबको वह और भी नागवार मालूम होता और उस वक्त आपके क्रोधका पारा न मालूम कितनी डिगरी ऊपर चढ जाता, जब एक मित्रके लेख पर नोट देनेसे ही उसकी यह दशा हुई है । उसे न छाप कर तो उस नीतिका भी अनुसरण किया गया है जिसे आपने विलायतके पत्रसपादकोकी नीति लिखा है और कहा है कि 'वे ऐसे लेखोको लेते ही नही जिनपर फुटनोट लगाये बगैर उनका काम न चले।' फिर इस पर कोप क्यो ? गजबकी धमकी क्यो ? और ऐसे विलक्षण आरोपकी सृष्टि क्यो ? क्या क्रोधके आधार पर ही आप अपना सब काम निकालना चाहते हैं ? और प्रेम, सौजन्य तथा युक्तिवाद आदिसे कुछ काम लेना नही चाहते ? बहुत सभव है कि आपका यह आरोप साम्प्रदायिकताके उस आरोपका महज जवाब हो जो कामताप्रसादजीकी लेखनी पर लगाया गया था, परन्तु कुछ भी हो, ऊपरके कथन तथा विवेचन परसे यह स्पष्ट है कि इसमें कुछ भी सार नही है और यह जाने-अनजाने बाबू छोटेलालजीके शब्दो तथा नोटके शब्दोको ठीक ध्यानमे न लेते हुए ही घटित किया गया है । आशा है बैरिष्टर साहब अब 'मूलकी मर्यादा' आदिके भावको ठीक समझ सकेंगे। ___यहाँ पर मैं अपने पाठकोको इतना और भी वतला देना चाहता हूँ कि इधर तो बाबू छोटेलालजी है, जिन्होने अपने लेख परके नोटोके महत्वको समझा है और इस लिये उन्होने उनका कोई प्रतिवाद नही किया और न उनके विषयमे किसी प्रकारकी अप्रसन्नताका ही भाव प्रकट किया है। वे बरावर गभीर तथा उदार बने हुए हैं और 'अनेकान्त' पत्रको बडी ऊँची दृष्टिसे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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