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________________ ३०८ युगवीर-निवन्धावली होनेका ही निकलता है दूसरे मतोसे पहले होनेका या प्रधानता आदिका नही। परन्तु मूल लेखके सम्बन्धक्रम अथवा उसके किसी प्रस्ताव या प्रकरणमे ऐसा नहीं पाया जाता, जैसा कि ऊपर 'मूल' शब्दसे पूर्ववती पूरे लेखाशको उद्धृत करके बतलाया जा चुका है । हाँ, यदि उस वाक्यका रूप यह होता कि “निर्ग्रन्थ दिगम्बर मत ही जैनसमाजका मूल धर्म है" तो ऐसा आशय निकाला जा सकता था, और तब, मूलकी मर्यादाका एक उल्लेख हो जानेसे, उस पर इस प्रकारका कोई नोट भी न लगाया जाता। परन्तु उसमें 'मूल' से पहले 'जैनसमाजका' ये शब्द अथवा इसी आशयके कोई दूसरे शब्द नही है और वाते पहले हिन्दुओ, ससार तथा विश्वके साथ सम्बन्धकी की गई हैं और अत तक वैदिक धर्मानुयायियोके मुकावलेमे अपनी प्राचीनताकी वात कही गई है, तव 'मूल' का वैसा अर्थ नहीं निकाला जा सकता । अत वैरिष्टर साहवने जो बात सुझानेकी चेष्टा की है वह उनकी कल्पनामात्र है-लेख परसे उसकी उपलब्धि नहीं होती। और सिलसिले ताल्लुक ( relevency ) की दुहाई अविचारितरम्य है। इसके बाद बैरिष्टर साहब "मूलकी मर्यादा" का अर्थ समझनेमे अकुलाते हुए लिखते हैं "परेशान हूँ कि मूलकी मर्यादाका क्या अर्थ करूं ? क्या कृछ नियत समयके लिये दिगबरी सप्रदाय मूल हो सकता है और फिर श्वेताम्बरी ? या थोडे दिनो श्वेताम्बरी मूल रहवे और फिर दिगबरी हो जावे या कुछ अशोमे यह और कुछमे वह ? आखिर मतलब क्या है ? मेरे खयालमे मुझसे यह गभीर प्रश्न हल नही हो सकेगा । स्वय सपादकजी ही इस पर प्रकाश डालेगे तो काम चलेगा। मगर एक बात और मेरे मनमे आती है और
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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