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________________ ३०६ युगवीर - निवन्धावली करने बैठे है । ऐसी हालतमे उक्त भूमिकाके अतिम वाक्यमे जव यह कहा गया कि "निर्ग्रन्थ दिगम्बर मत ही मूल धर्म है" और उसे "इतिहाससे सिद्ध" हुआ बतलाया गया तब सपादक के हृदयमे स्वभावत. ही यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि इस वाक्यमे प्रयुक्त हुए 'मूल' शब्दकी मर्यादा क्या है ? – उसका क्षेत्र कहाँ तक सीमित है ? अथवा वह किस दृष्टि, अपेक्षा या आशयको लेकर लिखा गया है ? क्योकि 'मूल' शव्दके आदि ( आद्य ) और प्रधान आदि कई अर्थ होते हैं और फिर दृष्टिभेदसे उनकी सीमा - मे भी अन्तर पड जाता है । तब दिगबरमत किस अर्थमे मूल धर्म है और किसका मूल धर्म है ? अर्थात् आदिकी दृष्टिसे मूल धर्म है या प्रधानकी दृष्टिसे मूल धर्म है ? और इस प्रत्येक दृष्टिके साथ, सर्वधर्मोकी अपेक्षा मूलधर्म है या वैदिक आदि किसी धर्मविशेष अथवा जैनधर्मकी किसी शाखाविशेषकी अपेक्षा मूल धर्म है ? सपूर्ण विश्वकी अपेक्षा मूलधर्म है या भारतवर्ष आदि किसी देशविशेषकी अपेक्षा मूल धर्म है ? सर्व युगोकी अपेक्षा मूल धर्म है या किसी युगविशेषकी अपेक्षा मूल धर्म है ? सर्व समाजोका मूल धर्म है या किसी समाजविशेषका मूल घर्म है ? इस प्रकारकी प्रश्नमाला उत्पन्न होती है । लेख परसे इसका कोई ठीक समाधान न हो सकनेसे 'मूल' शब्द पर नीचे लिखा फुटनोट लगाना उचित समझा गया - " अच्छा होता यदि यहाँ 'मूल' की मर्यादाका भी कुछ उल्लेख कर दिया जाता, जिससे पाठकोको उसपर ठीक विचार करनेका अवसर मिलता ।" पाठक देखें, यह नोट कितना सौम्य है, कितनी संयत भाषामे लिखा गया है और लेखकी उपर्युक्त स्थितिको ध्यानमे रखते
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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