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________________ ३०४ युगवीर - निवन्धावलो अपनी इस नोट पद्धतिको छोड देवे ? सपादकने अपनी इस नोटनीतिकी उपयोगिता और आवश्यकताका कितना ही स्पष्टीकरण उस लेख मे कर दिया है, जो 'एक आक्षेप'' नामसे ज्येष्ठ मासकी अनेकान्त किरण पृ० ३१६ पर प्रकाशित हुआ है । पाठक वहाँसे उसे जान सकते हैं। उसके विरोधमे यदि किसीको कुछ युक्तिपुरस्सर लिखना हो तो वे जरूर लिखें, उसपर विचार किया जायगा । अस्तु । अब उस नोटकी बात को भी लीजिये, जिसपर लेखमे सबसे अधिक वावेला मचाया गया है और लोगोको 'अनेकान्त' पत्र तथा उसके 'सम्पादक' के विरुद्ध भडकानेका जघन्य प्रयत्न किया गया है । इसके लिये सबसे पहले हमे बाबू छोटेलालजीके लेखके प्रारंभिक अशको ध्यानमे लेना होगा, और वह इस प्रकार है "यह बात सत्य है कि जिस जातिका इतिहास नही वह जाति प्राय नही - के तुल्य समझी जाती है, कुछ समय पूर्व जैनियो - की गणना हिन्दुओमे होती थी, किंतु जबसे जैन- पुरातत्वका विकास हुआ तवसे ससार हमे एक प्रचीन, स्वतंत्र और उच्च सिद्धान्तानुयायी समझने लगा है। साथ ही, हमारा इतिहास कितना अधिक विस्तीर्ण और गौरवान्वित है यह बात भी दिन-पर-दिन लोकमान्य होती चली जाती है । वह समय अब दूर नही हैं जब यह स्वीकार करना होगा कि 'जैनियोका इतिहास सारे ससारका इतिहास है ।' गहरी विचार दृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज जैन सिद्धान्त सारे विश्वमे अदृश्यरूपसे अपना कार्य कर रहे हैं । जैनसमाज अपने इतिहासके अनुसधान तथा १. यह लेख इसी पुस्तक में पृष्ठ २८४ पर प्रकाशित है ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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