SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ युगवीर-निवन्धावली यह चाहा कि आप दिल्लीकी किसी लायब्रेरीसे उसे ठीक करके उचित समझें तो प्रकट करें। उसको उसी शक्लमे छापनेकी चन्दा जरूरत नही थी और न ऐसा मैंने आपको लिखा था। खैर, अब आप उचित समझें तो इस गलतीको आगामी अङ्कमे ठोक कर दे । मै नही समझता, आपने उस नोटको प्रकट करके कौन-सा हित साधन किया ? हाँ, रही बात श्वेताम्बरत्वकी, सो जायसवालजीने यापज्ञापकोको श्वेताम्बरोका पूर्वज बतलाया है, सो निराधार है। इसके बजाय, यह बहुत सभव है कि वे उदासीनप्रती श्रावक हो, जिन्होने व्रतीश्रावक खारवेलके साथ यमनियमो-द्वारा तपस्याको अपनाया था । उनको वस्त्रादि देना कोई वेजा नही है जव उदयगिरि-खडगिरिमे नग्न मूत्तियाँ मिलती है तब वहॉपर श्वेताम्बरोका होना कैसे सभव है ? इस वातको जरा आप स्पष्ट कर दीजिये। साथमे एक लेख और भेजनेकी धृष्टता कर रहा हूँ। अगर उचित समझे तो छाप दे वरना कारण व्यक्त करके इसके लौटानेकी दया कीजिये । बडा अनुग्रह होगा।" यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि पहले पत्रमे जिस JBORS भाग ३ का उल्लेख है वह विहार-उडीसारिसर्च सोसायटीका सन् १६१८ का जर्नल है जिसमे जायसवालजीका पहला पाठ प्रगट हुआ था और अन्तिम पाठ जिस जर्नलमे प्रगट हुआ उसका न० १३ है और उसे बाबू साहबने गत वर्षमे ( अर्थात् १६२६ मे ) प्रकट हुआ लिखा है। इन्ही दोनो पाठकोंके अनुसार आपने अपने लेखमे खारवेलके शिला लेखकी १४ वी पक्तिको अलग-अलगरूपसे उद्धृत किया था और मुनि पुण्यविजयजी-द्वारा उद्धृत इस पक्तिके एक अशको मुनिजीका पाठ बतलाकर उसे स्वीकार करनेमे कठिनताका भाव दर्शाया था।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy