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________________ २५६ युगवीर - निवन्धावली लापके रूपमे लिख देनेका दु साहस न करे - खासकर ऐसी हालत मे जब कि आप मानते हैं कि लेखक अधिक 'अध्ययनी' है- 'पठन-पाठन बहुत करता है' तब उसकी किसी वातका सहज ही में विरोध नही किया जा सकता, उसके विरोधार्थ और भी ज्यादा गहरे अध्ययन तथा सावधानीकी जरूरत है, इसे कभी भी भुलाना न चाहिये । जान पडता है बडजात्याजीको कही यह भ्रम हो गया है कि सावद्यकर्मके उपदेशसे तो पापबन्ध नही होता किन्तु आदेशसे जरूर होता है और इसलिये उन्होंने अपनी समझ के अनुसार भगवान्को इस दोपसे मुक्त करनेके लिये उनके विपयमे उपदेश - आदेश- भेदकी यह कल्पना की है और उसके द्वारा यह बतलाना चाहा है कि भगवान्ने चैत्य- चैत्यालयोके निर्माण तथा दान-पूजनादि - की उन मव क्रियाओका उपदेश तो दिया है, जो प्राणियोकी हिंसा तथा पीडाकी कारण हैं परन्तु उनका आदेश नही दिया । और उनकी इस भ्रान्तिका ही यह परिणाम है जो उन्होने पात्रकेसरी - स्तोत्रके 'विमोक्षसुख' वाले पद्यमे प्रयुक्त हुए 'न देशिताः ' शव्दोका अर्थ 'उपदेश नही दिया' की जगह 'आदेश नही दिया' किया है, और उस 'आदेश' का अर्थ 'आज्ञा' वतलाया है । अन्यथा, 'उपदेश नही दिया' यह लेखकका अर्थ मूलके बहुत अनुकूल है, क्योकि मूलमे जिस वातको 'देशिताः ' पदके द्वारा जाहिर किया है उसीको अगले पद्यमे 'उपदिश्यतेस्म' पदसे उल्लेखित किया है । टीकाकारने भी 'विमोक्षसुख' वाले पद्यको देते हुए जो प्रस्तावनावाक्य ' दिया है उसमे 'उपदिशतः ' पढके प्रयोग द्वारा इसी अर्थको १ १ वह प्रस्तावना वाक्य इस प्रकार है :-- " नन्वेव जिनेन्द्रस्यापि चैत्यदानक्रिया हिंसालेश भूतामुपदिशत. कथ पापबन्धो न स्यादिति शङ्का निराकुर्वन्नाह ।"
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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