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________________ २१० युगवीर निवन्धावली बंदामि कहना चाहिये । गृहस्थियोको एव सार्मियोको परस्पर जुहारु शब्द भी कहा है। जिणवरधम्म गहियं हणेइ दुट्ट-कम्माणं । रुधइ आसवद्वार जुहारो जिणवरो भणीयं ।। १ ।। जुगादि ऋषभं देवं हारिण सर्वसंकटान् । रक्षन्ति सर्वजीवानां तस्माज्जुहारुरुच्यते ॥२॥ श्राद्धाः परस्पर कुर्युरिच्छाकारं स्वभावतः। जुहारुरिति लोकेस्मिन्नमस्कारं स्वसज्जनाः ।। ३ ।। अर्थ-श्रावकगण परस्परमे एक दूसरेसे इच्छाकार करे तथा लोक-व्यवहारमे सज्जनवर्गको 'जुहारु' इस तरहका नमस्कार करना शास्त्रोमे वतलाया है। सो वोलने, चिठिठये तथा पाठशाला, वोडिंग, कन्याशाला, श्राविकाश्रम हर जगह यह पद्धति प्रचलित होनी चाहिये । हम बार-बार कहते है कि इसका प्रचार होना चाहिये।" __ भट्टारकजीके इस सपूर्ण वक्तव्यका सार सिर्फ इतना ही है कि 'जैनियोमे परस्पर जयजिनेन्द्र बोलनेका जो रिवाज है वह पहलेके रिवाजके अनुसार नही है और न शास्त्र-वचनोके ही अनुसार है। उसका कारण नासमझी है। पहले उनमे इच्छाकार तथा जुहारु बोलनेका रिवाज था, शास्त्रोमे भी उसका विधान मिलता है और इसलिये अब भी उसीका सर्वत्र प्रचार होना चाहिये ।' आपने प्रमाणमे शास्त्रोके चार पद्य भी उद्धृत किये हैं, परन्तु उनकी बावत यह बतलानेकी कृपा नही की कि वे कौन-से शास्त्रके वाक्य हैं अथवा किसके द्वारा रचे गये हैं, और न यही बतलाया कि 'जयजिनेन्द्र'का रिवाज कबसे प्रचलित हुआ और किस आधारपर वे उसके, प्रचलित होनेके समयको निश्चित करनेमें
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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