SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयजिनेन्द्र, जुहारु और इच्छाकार २०९ राजा तक नही और न परिस्थितियो तथा रूढियोको बदलने या उनपर विजय प्राप्त करनेकी ही किसीकी इच्छा है। उनके हृदय भय-विह्वल और आशाएँ दुर्वल है। ऐसी हालतमे उनसे 'जयजिनेन्द्र' के व्यवहारका छुडाना उन्हे और भी अपने कर्त्तव्यसे च्युत करना है। क्या आश्चर्य है जो इस 'जयजिनेन्द्र के घोपमे ही जैनियोको कभी अपनी जयशीलताका बोध हो जाय और वे अपनी अकर्मण्यताको छोडकर सच्चे हृदयसे जिनेन्द्रका महान् जयघोष करते हुए अपने कर्तव्य-पथपर आरूढ हो जायें-अपनी आत्म-निधिको प्राप्त करनेके यत्नमे लग जायं। ऐसा होनेपर जैनी आज भी अपने आध्यात्मिक बलसे ससारको विजित करके जिनेन्द्रकी तरफ उसका हित-साधन कर सकते हैं। और इसीलिये 'जयजिनेन्द्र' के इस पारस्परिक व्यवहारको उठा देना किसी तरह भी युक्तिसगत मालूम नही होता। __अब मैं भट्टारक सुरेन्द्रकीतिजीके वक्तव्यको लेता हूँ। उन्होंने इस विषयमे जो कुछ लिखा है वह इस प्रकार है"आजकल विशेषतर जैनजाति पुरुष व स्त्रियोमे परस्पर और चिट्ठी-पत्रीमे जयजिनेन्द्र बोलने-लिखनेका रिवाज बहुत प्रचलित हुआ है। उसका कारण यह है कि कौन-सी जगह कौन-सा नमस्कार करना, व रूढी न समझकर जयजिनेन्द्र बोलनेका रिवाज पड गया है । सो यह रिवाज पूर्वके अनुसार और शास्त्रके वचनके अनुसार नही है। शास्त्रोमे ऐसा कहा है - नमोस्तु गुरुवे कुर्याद्वदना ब्रह्मचारिणे । इच्छाकार सधर्मिभ्यो वन्दामीत्यर्जिकादिषु ॥१॥ अर्थ --गुरुओको नमोस्तु कहना, ब्रह्मचारियोको वन्दना कहना, साधर्मियोको परस्पर इच्छाकार कहना और आर्यिकाओको
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy