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________________ जयजिनेन्द्र, जुहारु, इच्छाकार २०५ कुछ बोघ ही हुआ तो इसमे कुछ भी आश्चर्य नहीं है । नि सन्देह ऐलकजीकी उक्त बात निरी वच्चोको बहकाने जैसी जान पडती है-युक्ति और आगमसे उसका कुछ भी सम्बन्ध नही है । मालूम नही ब्रह्मचारीजीने उक्त प्रश्नके उत्तरमे जो सिर्फ इतना ही लिख दिया कि "परस्पर जुहारु करनेका ही कथन ठीक है।" उसमे उन्होने ऐलकजीके हेतुको भी स्वीकार किया या कि नही । जहाँ तक मैं समझता हूँ ब्रह्मचारीजीके इस उत्तरमे उक्त हेतुका कोई आधार नहीं है बल्कि उसका मूल कुछ दूसरा ही है जो आगे चलकर मालूम होगा। हॉ, इतना जरूर कहना होगा कि उनका यह सक्षिप्त उत्तर प्रश्नका समाधान करनेके लिये पर्याप्त नही है। ___'जयरामजी' और 'जयश्रीकृष्ण' का अर्थ जिस प्रकार 'रामजीकी जय' और 'कृष्णजीकी जय' होता है। उसी प्रकार 'जयजिनेन्द्र' का भी एक अर्थ 'जिनेन्द्रकी जय' होता है।' इसीसे कुछ भाई कभी-कभी 'जयजिनेन्द्रदेवकी' ऐसा भी बोलते हुए देखे जाते हैं। हिन्दुओमे भी 'जयरामजीकी' ऐसा बोला जाता है। सिक्ख-भाइयोंने भी इसी आशयको लेकर अपने व्यवहारका सामान्य मन्त्र 'वाह गुरुकी फतह' रक्खा है। इस अर्थ मे, 'जयजिनेन्द्र' यह 'जयोऽस्तु जिनेन्द्रस्य' शब्दोका हिन्दी रूप है । दूसरा अर्थ होता है 'जिनेन्द्र जयवन्त हो' और इस अर्थमे जयजिनेन्द्रको 'जयतु जिनेन्द्र' का हिन्दी रूपान्तर समझना चाहिये। प्राय इन्ही दोनो अर्थोमे 'जयजिनेन्द्र' वाक्यका व्यवहार होता है, और ये दोनो अर्थ एक ही आशयके द्योतक हैं। इनके सिवाय, एक तीसरा, अर्थ भी हो सकता है जो पारस्परिक व्यवहारमें अभिप्रेत नही होता किन्तु विशेष रूपसे जिनेन्द्र
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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