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________________ १८८ युगवीर-निवन्धावली नही थे और इसीसे 'रोहिणीने स्वयवरमडपमे किसी राजाको नही वरा' इन शब्दोका प्रयोग हो सका है। स्वयवरमडपमे स्थित जब सव राजाओका परिचय दिया जा चुका था और रोहिणीने उनमेसे किसीको भी अपना वर पसद नही किया था तभी वसुदेवजीने वीणा बजाकर रोहिणीकी चित्तवृत्तिको अपनी ओर आकर्षित किया था। अत. समालोचकजीकी इस कल्पना और आपत्तिमे कुछ भी दम मालूम नही होता। दूसरी आपत्तिके विषयमे, यद्यपि, अब कुछ विशेष लिखनेकी जरूरत वाकी नही रहती, फिर भी यहाँपर इतना प्रकट कर देना उचित मालूम होता है कि समालोचकजीने उसमे लेखकका जो वाक्य दिया है वह कुछ बदल कर रक्खा है उस मे 'अज्ञातकुलजाति' के बाद 'रडू' शब्द अपनी ओरसे बढाया है और उससे पहले 'एक अपरिचित' आदि शब्दोको निकाल दिया है। इसी प्रकारका और भी कुछ उलटफेर किया है जो ऊपर उद्धृत किये हुए उदाहरणांशपरसे सहजमे ही जाना जा सकता है। मालूम नहीं, इस उलटा-पलटीसे समालोचकजीने क्या नतीजा निकाला है। शायद इस प्रकारके प्रयत्न-द्वारा ही आप लेखकके लिखनेको "सर्वथा शास्त्रविरुद्ध" सिद्ध करना चाहते हो । परन्तु ऐसे प्रयत्नोसे क्या हो सकता है ? समालोचकजीने कही भी यह सिद्ध करके नही बतलाया कि वरमाला डालनेके वक्त वसुदेवजी एक अपरिचित और अज्ञातकूल-जाति व्यक्ति नही थे। जिनसेनाचार्यने तो वरमाला डालनेके बाद भी आपको "कोऽपि गुप्तकुलः" विशेषणके-द्वारा उल्लेखित किया है और तदनुसार जिनदास ब्रह्मचारीने भी आपके लिये “कोऽपि गूढकुलः" विशेषणका प्रयोग किया है, जिससे जाहिर है कि उनका
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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