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________________ प्राकथन इस मग्रहके सभी निबन्ध पठनीय हैं। उनकी ताजगीमें भी विशेप कमी आई प्रतीत नहीं होती। उनमें नमाजके नवनिर्माणकी एक उत्कट ललक लक्षित होती है और आज भी वे उतने ही उपादेव हैं जितने कि उस समय थे जब वे लिखे गये । मुन्तार मा० की विशिष्ट शैनीका, जिमे बहुवा लोग 'मुन्नारी शैली' कहते हैं, इन निबन्धोमे पग-पगपर दशन होता है । मापा सरल, मुबोध, धाराप्रवाह, तर्कपूर्ण, ओर अपनी बातको पाठकके हृदयमै पंवन्त कर देनेके निये कृतसकल्प, शास्नाधारसे सीमित किन्तु स्वतन्त्र चिन्तन, युक्ति और विवेककी बलि देकर नहीं, जात्मविश्वासपूर्ण जोर निर्भीक है । जहाँ मुन्नार सा० किमी की अनुचित या जावश्यकतासे अधिक प्रगता करने में पर्याप्न कृपण है वहां अपनी बातको स्पष्ट करनेके लिए एकएक शब्दके ई-कई पर्याय-वाची एक माथ दे देने में बड़े मुक्तहस्त है । अपने और दूसरोके शब्दोकी पकडमे जितने मजबूत ये हैं, बिरले ही होते है। शब्दोका जो जीहरीपन इनके अनुवादो ओर भाप्योंमें लक्षित होता है वह इन निवन्धीमें शायद उनना नहीं होता, किन्तु निरर्थक या विपरीताथक शब्द-प्रयोग यहाँ भी नहीं मिलेंगे। ___ वर्तमान जनमाहित्य-नसारके इस भीष्मपितामहका जमा और जितना कृतज्ञता-ज्ञापन होना चाहिये वह उस समाजने जिसके लिये वह जिया, जिसकी सेवा एव हित सम्पादनमे वह शतायु होने जा रहा है-आज ९० वर्पकी आयुमै भी कई माससे रुग्ण होते हुए और एटामे अपने भातृज डा० श्रीचन्द सगलकी पुत्रवत् सेवाका लाभ उठाते हुए उसी गभीर साहित्यिक शोध-खोज एव निर्माणमे युवकोचित उत्साहसे रत है-अभीतक नही किया। उमका सम्यक् लाभ भी नहीं उठाया। महाभारतके भीप्मपितामहका लाभ भी तो विपक्षी पाडवोने तो उठाया था किन्तु जिन कौरवोके लिए उसने अपने रक्तकी अतिम बंद तक बहा दी और शरशय्या ग्रहण की उन्होने तो उसकी सदैव अवहेलना ही की थी। अस्तु, समादरणीय मुख्तार साहवके इस निवन्ध-सग्रहका प्रकाशन समाजकी प्रगतिके लिए उपयोगी और हिन्दी साहित्यकी अभिवृद्धि में एक श्रेष्ठ योगदान होगा, इसमे सन्देह नहीं है। मेरा सौभाग्य है कि मुझपर
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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