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________________ १४९ विवाह-क्षेत्र प्रकाश सम्राट् 'चंद्रगुप्त' 'भद्रवाहु' श्रुतकेवलीके शिष्य थे, इन्होंने जैन मुनिदीक्षा भी धारण की थी, जिसका उल्लेख कितने ही जैनशास्त्रो तथा शिलालेखोमे पाया जाता है। और जैनियोकी क्षेत्रगणनाके अनुसार सीरिया भी आर्यखण्डका ही एक प्रदेश है। ऐसी हालतमे यह वात और भी निर्विवाद तथा नि सन्देह हो जाती है कि पहले आर्यखण्डके म्लेच्छोके साथ भी आर्यों अथवा उच्च कुलीनोका विवाह-सम्बध होता था। हमारे समालोचकजीका चित्त 'जरा' के विपयमे वहुत ही डांवाडोल मालूम होता है-वे स्वय इस बातका कोई निश्चय नही कर सके कि जरा किसकी पुत्री थी-कभी उनका यह खयाल होता है कि जराका पिता म्लेच्छ या भील न होकर म्लेच्छो अथवा भीलोपर शासन करनेवाला कोई आर्य राजा होगा और उसीने अपनी कन्या 'वसुदेव' को दी होगी, कभी वे सोचते हैं कि यह कन्या 'वसुदेव' को दी तो होगी भीलने ही परन्तु वह कहीसे उसे छीन लाया होगा-उसकी वह अपनी कन्या नही होगी-, और फिर कभी उनके चित्तमे यह खयाल भी चक्कर लगाता है कि शायद जरा हो तो म्लेच्छकन्या ही, परन्तु वह क्षेत्र-म्लेच्छकी-म्लेच्छखडके म्लेच्छकी-कन्या होगी, उसका कुलाचार बुरा नही होगा अथवा उसके आचरणम कोई नीचता नही होगी! खेद है कि ऐसे अनिश्चित और सदिग्ध चित्तवृत्तिवाले व्यक्ति भी सुनिश्चित बातोकी समालोचना करके उनपर आक्षेप करनेके लिये तैयार हो जाते हैं और उन्हे मिथ्या तक कह डालनेकी धृष्टता कर बैठते हैं । अस्तु, समालोचकजी, उक्त अवतरणके बाद, अपने खयालोकी इसी उधेडबुनमे लिखते हैं -
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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