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________________ समयसारपत्र ( ८६/१ ) द्वि क्रियावादी मिथ्यादृष्टि है । निजमें निजको, पर में पर की सर्वक्रिया होती निष्पन्न । कर्म कर्त्त ता-चेतन में तुम करना, चाह रहे सम्पन्न । कितु न जड़ की क्रिया कभी भी चेतन कर सकता निष्पन्न । द्विक्रिया वाद इसी से मिथ्या हो जाता संसिद्ध, विपन्न । ( ८६/२ ) निश्चय नय से कर्ता कर्म और क्रिया का स्वरूप । जो परिणमन करे वह कर्ता, कर्म वही जो हो परिणाम । परणति-क्रिया कही जाती है, वस्तु एक-त्रय दृष्टि ललाम । स्वतः प्रत्येक द्रव्य परिणामी परिणमता कर निजपरिणाम । पुद्गल को परणति पुद्गल में, चेतन में उसका क्या काम ? ( ८६/३ ) ममतम ग्रसित जीव अज्ञानी बन रहता सदृष्टि विहीन । 'मैं कर्ता-धर्ता हूँ जग का' यों, विचार कर बने मलीन । इस अनादि सम का हो जाये यदि परिहार एक ही बार तो निश्चित हो जाय हमारा भवसागर से बेढ़ा पार । (86/1) नि-यो । संसिख-अच्छी तरह सिद विपन्न-विपद् प्रस्त, मष्ट, जिस पर विपत्ति माई हो। (86/2) ललाम-मुन्वर । (86/3) परिहार-स्थाग, दोष का दूर करना ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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