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________________ का-काधिकार ( ८३/२ ) उक्त कथन का दृष्टांत । उदषि शांत हो या लहरावे, उठने पर भीषण तूफान । वह अपनी परणति अपने में करता है, स्वयमेव, न पान । तीन मंद मध्यम गति परिणत बहने वाला वायु-प्रवीण ! रहता है निमित्त हो केवल, सागर की परणति स्वाधीन । (८४ ) जीव कर्मों का कर्ता भोक्ता व्यवहार से है । यथा मृत्तिका से कुलाल मृद्-पात्रों का करता निर्माण । उनका कर्ता-भोक्ता है वह, यह कहता व्यवहार विधान । त्यों सविकारी जीव कर्म का कर्ता है व्यवहार-प्रमाण । सुख-दुख कर्मफलों का भोक्ता भी कहलाता वह, मतिमान ! ( ८५ ) निश्चय से जीव कर्म का करता क्यो नही है ? निश्चय से यदि जीव कर्म का कर्ता माना जाय नितांत । तब जड़-चेतन उभय क्रिया का कारक जीव ठहरता, भ्रांत । जिनमत से विरुद्ध वा बाधित भी है यह सिद्धांत, प्रवीण ! जड़ में जड़, चेतन में चेतन क्रिया हुमा करती स्वाधीन । (83/2) उदषि-समुद्र । आम-सरा। सागर-समुद्र । (84) कुलाल-कुम्हार, कुंभ कार । मृ-मिट्टी ।सविकारी-रागद्वेषादि विकार करने वाला।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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