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________________ समयसार-वैमव ( ७१ ) आस्रव एव बध कब नहीं होता ? जीवन में छाया अनादि से मोहमहातम निबिड नितांतजिससे अपना और पराया समझ न पाता चिर विभ्रान्त । जब क्रोधादि प्रास्रवों से हो भिन्न ज्ञात शुद्धात्म स्वरूपजीवन मे तब बंध न होता, भेद-ज्ञान-परिणामअनूप ! भेद विज्ञान से बध निवृत्ति किस प्रकार होती है ? प्रास्रव अशुचि स्वभाव जिन कथित ज्यों जल में सिवार त्यों म्लान । जीव ज्ञानघन है, प्रास्त्रव पर चिद्विकार पुद्गल संतान । चिदानंद मय रूप हमारा--प्रास्त्रव दुखद और पर रूप । एवं जान रहस्य न करता ज्ञानी प्रास्रव भाव विरूप । ( ७३/१ ) भेद ज्ञानी की शुद्धात्म भावना हचिन्मात्र तत्व में शाश्वत, शुद्ध-कर्म कर्त त्व विहीन । क्रोध मान मायादि विकृति से निर्ममत्व, रागादिक होन । दर्शन ज्ञान-समग्र, स्वस्थ, सच्चिदानंदरस पूर्ण प्रक्षीण । कर्मकलंकपंक बिन पावन, अमल-प्रखंड-ज्योति,स्वाधीन । (72) निवृत्ति-छुटकारा-मुक्ति। निविड़-घोर, सधन । चिब्रह्म-ज्ञानमयो आत्मा। अनूप-उपमा रहित, बेमिसाल, (72) सिवाल-काई, जल में उत्पन्न पदार्थ विशेष । (73/1) शास्वत-सवाकाल रहने वाला, स्थायी ।चिन्मात्र-मान मात्र ज्ञानमयी । समप्र-परिपूर्ण ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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