SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्ता-कर्माधिकारः ( ६६ ) आत्मा मे क्रोधादि भाव क्यो उत्पन्न होते है , चिर प्रज्ञान जनित भ्रमतमरत रह अनादि से सतत अशांत । प्रास्त्रव एवं आत्म तत्व में अंतर पाता नहि चिभ्रांत । निज अज्ञानदशा में भ्रमवश कर क्रोधादि मलिन परिणाम । तन्मय हो अभिनय करता है भूतग्रस्त जनवत् अविराम । क्रोधादि भावों का परिणाम क्या होता है ? जीवन में क्रोधादि विकृति कर खुलजाता प्रास्रव का द्वार । प्रास्त्रय संचित कर्म बद्ध हों-तीव्र मंद परणति अनुसार । जीव-पुदगलों में जिन भाषित है वैभाविक शक्ति महान -- जिससे उभय-द्रव्य में होती वैभाविक परणतियां म्लान । (69) चिद्भात-आत्म तत्व के संबंध में भ्राति रखने वाला । भूत प्रस्त-जिसे भूत लगा हो। (मिथ्या दृष्टि) जनवत्-मनुष्य के समान । अविराम-निरंतर । (70) विकृतिविकार । संचित-इकट्ठे किये हुए। बंभाविक शक्ति-विकार रूप परिणमन करने को योग्यता । उभय-दोनो । म्लान-मलीन-विकृत, गंदी।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy