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________________ जीवाजीवाधिकार १६ (६४) संसारी जीव को रूपी मानने में हानियाँ यों संसारी जीव मात्र तुम पुद्गल माना एक प्रकार । उसे मुक्ति मिलने पर पुद्गल को ही मुक्ति मिली साकार। यों पुद्गल ही सिद्ध हुए सब, जीव तत्व का हुवा विनाश । यह संभव नहि, यतः स्वयं में झलक रहा चैतन्य प्रकाश । (६५) जीव स्थान भी निश्चय से जीव नही। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय प्रादि-- बादर और सूक्ष्म सब ही है नामकर्म की प्रकृति अनादि । पर्याप्तापर्याप्तक भी है उसी कर्म के भेद निदान । इन्हीं प्रकृतियों द्वारा होते समुत्पन्न सब जीवस्थान । (६६) जीवस्थान जड़ स्वभाव है इनमें कहाँ चेतना ? इनसे भिन्न तत्व चैतन्य ललाम । करणभूत ये कर्म प्रकृतियां पुद्गलमय है जड़ परिणाम । इनमें जब उपलब्ध नहीं है, कहीं जीव का सत्त्व अनूप । फिर जड़ प्रकृतिमयो इन सबको मान्य करें कैसे चिद्रूप ? (65) समुत्पन पैदा । (66) सत्व-अस्तित्व ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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