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________________ ३५ समयसार-वैभव व्यवहार व निश्चय प्रवृत्ति के कारण संसारी जन में वर्णादिक कहलाते पुद्गल के संग; किन्तु मुक्त हो जाने पर नहि वर्ण आदि का रहे प्रसंग । इनका है तादात्म्य देह में; किन्तु जीव से है संयोग । संसृति से परिपूर्ण मुक्त में इनका होता सहज वियोग । ( ६२ ) जीव और पुद्गल भिन्न क्यों है ? यदि वर्णादि पौद्गलिक जितने भी है गुण पर्याय विशेष । चेतन के ही मान चलें तो पुद्गल पृथक् न रहता लेश । यथा ज्ञान दर्शन चेतन से रखते है तादात्म्य अतीव । त्यों वर्णादिक गुण पुद्गल से, अतः भिन्न द्वय पुद्गल जीव । ( ६३ ) ससारी जीवो को वास्तव मे रूपी मानना युक्त नही तुम्हें मान्य हों यदि संसारी--जन वर्णादिमन्त सविशेष । तब स्वभावतः ही संसारी मूर्तिमंत हों, सिद्ध अशेष । माना गया रूप को पुद्गल का विशेष लक्षण निम्रन्ति । उक्त नियम से संसारी जन पुद्गल होंगे सिद्ध नितांत ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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