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________________ समयसार-वैभव ( २६ ) निश्चय जिन स्तवन निश्चय से नहि काय संस्तवन देवस्तुति कहलाती है । यतः न काया के गुण प्रभु में जिनवाणी दरशाती है । निविकार प्रभु के गुण गाकर जो संस्तव होता मतिमान । वही वस्तुतः जिन स्तवन है निश्चय नय की दृष्टि प्रमाण । ( ३० ) दृष्टात द्वारा इसी का स्पष्टीकरण सुन्दर नगर, स्वर्गसम जिसमें वन उपवन प्रासाद महान । यं न नगर संस्तव से होता उसके राजा का गुणगान । त्यों विभुवर की दिव्यदेह का करने से संस्तवन, निदान । संस्तुत कहलायेंगे कैसे केवलि-श्रुत केवलि भगवान् ? ( ३१ ) निश्चय जिन स्तवन का प्रथम रूप तब फिर निश्चय नय से होगा क्यों कर जिन स्तवन अम्लान ? सुनो, द्रव्य भावेन्द्रिय के प्रिय विषयों में प्रवृत्त सब ज्ञान - पृथक् जान ज्ञायक स्वभाव से अपना रूप लिया पहिचान । वही जितेन्द्रिय जिन कहलाता, यह निश्चय संस्तवन सुजान। (29) कायसंस्तवन-शरीर को स्तुति । (31) जितेन्द्रिय-त्रियों को जीतने वाला ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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