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________________ जीवाजीवाधिकार ( २७/३ ) दिव्य देह तो दूर, चरणरज भी बन रहती पूज्य, निदान । जिससे पावनभूमि लोक में कहलाती है 'तीर्य' महान । पाषाणों से निर्मित घर भी मंदिर कहलाते अभिराम । मूर्ति अकृत्रिम कृत्रिम प्रभु की वंदनीय हों पाठोंयाम । ( २७/४ ) जिन्हें नमन करते सुरनर मुनि इन्द्रादिक गाकर गुणगान । तनिमित्त जीवन कृतार्थ कर पाते सम्यकदर्श महान । प्रथम भूमिका में संसारी रह व्यवहार साधनालीन । निश्चय लक्ष्य बना कर करते धर्माराधन नित शालीन । ( २८ ) देहाश्रित जिनस्तवन मे साधुकी भावना यदपि भिन्न विभुवर को काया प्रात्मतत्त्व से स्वतः स्वभाव । तदपि साधु संस्तवन वन्दना करने का रखते हैं चाव । मान यही-मैने वन्दे हैं निश्चय ही केवलिभगवान् । और संस्तवन किया उन्हीं का भक्ति भाव से गा गुणगान । (273) आठोयाम-आठ पहर-निरंतर। (2714) सद्धर्माराधन-पवित्र धर्म की आराधना । अमलीन-पावन । तदपि साधु सान्न बन्दे भक्ति भाव
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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