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________________ समयसार-वैभव (११४५) उपचरित नय की स्थिति एव प्रयोजन इस उपचरित नयाश्रित प्रायः चलता सकल लोक व्यवहार । जो कि निमित्त प्रधान दृष्टि है, तत्व नहीं इसमें अविकार। सत्य मान परिपूर्ण इसे सब लोक भ्रमित हो रहा, प्रवीण! किन्तु अज्ञ प्रति बोध हेतु ही यह भी प्राश्रयणीय मलीन । यथार्थ बोध के लिये नय ज्ञान की आवश्यकता परमागम में तत्व विवेचन-सर्वनयों से कर अम्लानभव्य जीव प्रति बोध दिया है, यहाँ सुनिश्चय दृष्टि प्रधान । नय स्वरूप समझे विन भ्रमतम-मिट-न-होता सम्यवज्ञान; प्रतः बंधु ! मध्यस्थभाव से तत्व समझना ही श्रेयान् । (१२/१) व्यवहार नय का प्रयोजन एव पात्रता शुद्ध प्रात्म की हुई न जबतक, जीवन में उपलब्धि महानअपरम भावाश्रित जन हित नित नय व्यवहार प्रयोजनवान् । जो कि द्रव्य में गुण पर्यय गत भेद व्यवस्था कर अम्लानप्रथम भूमिका संस्थित जन को करता सम्यक्दृष्टि प्रदान । (11) अम्लान-निबोध (12/1) अपरमभावाश्रित जन-सविकल्प दशा में स्थित जीव ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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