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________________ होगा कि कुछ बंधु-"पुण्ण फला अरिहन्ता" आदि प्रवचनसार को इस गाथा का यह अर्य करते हैं कि पुण्य के फल से अरहन्त अवस्था प्राप्त हुई है, ऐसा समझना नितांत भूल है। अरहन्त बशा तो चार धातिया कर्म के नाश होने से प्राप्त हुई है। अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति पुण्योदय से नहीं है, पातिया कर्मों के नाश से है। गाथा में तो यह प्रतिपादित हैं कि अरहन्त दशा में संपूर्ण श्रेष्ठतम पुण्य का परिपाक हुआ है, उसका फल-समवशरणादि विभूति, देवेन्द्रों-चकतियों द्वारा प्राप्त पूज्यपना, शरीर को परमौवारिकता-आदि हैं-जो संसार में किसी अन्य पद में प्राप्त नहीं होते। तथापि विचार कीजिए तो ये ही सब पुग्योदय रूप अधातिया कर्म को प्रशस्त प्रकृतियाँ हो तो उनके मोन के लिए बाधक हैं। अब तक इनका नाश नहीं होता तब तक वे बरहन्त प्रभु सिवावस्था प्राप्त नहीं कर पाते । अतः पुष्पोदप की पराधीनता उनको स्वाधीनता की बाषक है। अध्यात्म ग्रंथों का विवेचन मोक्षमार्ग की दृष्टि से है। मोक्षमार्ग और बंधन मार्ग बोनों परस्पर विरुद्ध हैं। पुण्य के उदय आने पर प्राप्त सामग्री का उपयोग जो अपने पुण्य-पाप के बंधन तोड़ने में ही करते हैं वे धन्य हैं ! ऐसे व्यक्तियों का पुष्य मोक्षमार्गका साधन बना-ऐसा मात्र उपचार कथन है, परमार्थ में तो वह बाषक भी है। पुष्प पापाषिकार-पुण्य और पाप की रुवि छाकर बीव को मोल मार्ग के साक्षात् सापक शन भाव को प्राप्त करने को प्रेरणा देता है। इसका प्रकारान्तर से स्पष्ट विवेचन करने के लिए ही चौपा मानव अधिकार लिखा गया है। मिथ्यात्व-अधिरतिसावाय-योग इन चार प्रकार के कारणों से कत्रित होता है। ये चारों ही जीव विभाव भाव स्वरूप होने से जीव से अनन्य है। सम्यक्यूंष्टि जीब से आलब नहीं होता, इसका कारण यह है कि वह मानी है। और उपत चारों भाव अज्ञानमय भाव हैं। यहाँ सम्यदृष्टि से या मानी से तात्पर्य पूर्णरीत्या जोमानमय उपयोग को प्राप्त हैं
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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