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________________ पुष्य फल को रुचि का अर्थ सांसारिक विषयों की बांछा हो तो है, और विषयों की वांछा स्वयं पाप रूपभाव है। तब प्रकारान्तर से रुचिपूर्वक पुण्य का भोग पापबंध का कर्ता ही होगा। विचार कीजिए कि जिस कार्य का परिणाम अन्तिम रूप से पाप का बंध हो उसे उसम कसे कहा जाय ? बह जीव का हित रूप से हो सकता है ? यदि किसी व्यक्ति से कहा जाय कि आपको आज राज्यसिहासन का पूर्ण अधिकारी बनाया जाता है, संपूर्ण राज्य वैभव का आज तुम भोग कर सकते हो, पर इसकी कीमत कल फांसी पर बढ़कर चुकानी होगी, तो कोई भी बुद्धिमान ऐसे राज्य सिंहासन का दूर से ही परित्याग करेगा। इसी प्रकार जिस पुण्यबंध के उवय से प्राप्त सांसारिक मनुज-मेव पर्याय के मुख भोग, पाप का बंध कराकर नरक तिथंच आदिपर्यायों में पुनः घोर दुःख के कारण बन जायेंउस पुण्य को भी हेय ही मानना होगा। यह सही है कि मिया इष्टि की अपेक्षा सम्यवृष्टि जीव के पुण्य बंध अधिक होता है। संयमी जीवों के उससे अधिक पुण्यबंध होता है। पर ये सीव पुष्य को भी हेय मानकर ही चलते हैं। क्योंकि इनकी दृष्टि सांसारिक सुख प्राप्ति की नहीं होती, ये तो पुण्य-पाप दोनों को बंध का कारण जानकार उससे ऊपर बढ़ना चाहते हैं। इसीलिये सम्पदृष्टि जीव स्वर्गादि मतियों में, इन्द्रादि के वैभव पाकर, तथा मनुष्य गति में बावर्ती गादि पद की विभूतियां पाकर भी इन सब को तथा वहां की लम्बी आयु को भी मोक्षमार्ग के लिए अन्तराय रूप ही मानते हैं । वस्तुतः विचार करने पर आप भी अनुभव करेंगे कि जैसे सुवर्ण के पीजड़े में बंद हुमा मिश्री खीर खाने वाला भी तोता, जिसकी चोंच सोने से मनाई गई है, अपनी उस संपूर्ण सुखमय दशा को बंधन रूप मानकर दुखी है, और अवसर पाते हो पिंजरा छोड़ स्वतंत्र होकर अपने को सुलो अनुभव करता है। इसी प्रकार जिसकी दृष्टि शुद्ध हो चुकी-जिसकी दृष्टि से मोह जन्य भ्रम दूर हो गया है वह सम्यवृष्टि भी पुण्योदय से प्राप्त समस्त वैभव को अपने इष्ट-मोक्ष मार्ग के लिए बंधन रूपपुलरूप-पराधीनतारूप और अंतरायल्प मानता है । अतः मिथ्यात्व का पर्वा हटाकर सम्यग्दर्शन के विमल नेत्र से देखने पर पाप-पुण्य दोनों बंधनरूप-पराधीनतारूप-दुख रूप और मोक्ष महल में प्रवेश के लिए अर्गलारूप ही हैं। यही भाष इस तृतीय अधिकार में विशेषरूपसे प्ररूपित हैं। यहां यह विवेचन भी सामयिक
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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