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________________ समयसार वैभव ( ४१३ ) सागारों या अनगारों के बाह्य वेश जो विविध प्रकार । उनमें मोहित जन क्या जाने पावन समयसार अविकार ? भावलिंग बिन द्रलिंग में अहंभाव घर हुआ विमूढ़ । वह परमार्थ शून्य तंडल तज तुष संचय करता है मूढ़ । ( ४१४/१ ) व्यवहारनय मोक्ष मार्ग में दोनों लिगों का वर्णन करता है नय व्वहार किंतु करता द्वय लिंग मुक्ति पथ में स्वीकार । द्रव्य-लिंग को भावलिंग का सहचारी सम्यक् निर्धार । परमार्थो को मुनि श्रावक के उभय लिंग पड़ते अनुकूल । अतः इन्हें स्वीकृत कर भी वह इनमें हो जाता नहि फल । (४१४/२ ) "मैं हूँ श्रमण या कि श्रावक हूँ" यूँ कर अहंकार ममकारभावलिंग से शुन्य जन कभी पा न सके संसृति का पार । निश्चय नय को नहिं अभीष्ट है किंचित् भी बहिरंग विचार । इससे यह न समझना-रहता अर्थ शून्य जिनलिंग उदार । (४१३) तुष-छिलका । (४१४१) व्य-दो । लिंग-शारीरिक बाह्य वेश । मालिंग-मात्मा के भावों में बालविक निता।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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