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________________ सर्व विशुद्ध शानाधिकार ( ४१० ) इस प्रकार श्रीमन्जिनेन्द्र ने पाखंडी जो वेश अशेष-- या गृहस्थ के विविध वेश है, उन में तथ्य न पाकर लेश-- दर्शन ज्ञान चरित्र मयी ही स्वाश्रित मुक्ति मार्ग निर्धार-- घोषित किया भालिंगी को समयसार सम्प्राप्त्याधिकार । ( ४११ ) वस्तुतः शारिरिक वेश शुक्ति मार्ग न होकर रत्नत्रय ही मुक्तिमार्ग है प्रतः संत ! सागार तथा अनगारों के शारीरिक वेश-- सर्व प्रात्म से भिन्न समझ कर मुक्ति मार्ग में करो प्रवेश । मुक्ति मार्ग जिन कथित सुनिश्चित सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान । सम्यक्चरित नाम से व्यवहृत स्वात्मस्थिति, रुचि, ज्ञप्ति महान । ( ४१२ ) आत्म-संबोधन चेतन ! तू प्रज्ञापराधवश कब से बना हुआ दिग्भात ? अब भी चेत, स्वात्म संस्थितिकर, मुक्ति पथ-पथिक बन निर्धान्त केवल उस ही का चितन कर, उसमें कर सानंद विहार । पर द्रव्यों भावों वेशों में उलझ न भ्रमवश कर ममकार । (४१०) पाषंडी-मुनि के बाद्य बेश । (४११) सागार-गृहस्य । अनगारों-साधुनों । शाप्ति-जानमा, शानभाव। (४१२) प्रमापराध-महानता अन्य भाव ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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