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________________ १५५ समयसार-वैभव ( ३८६/२ ) आस्तविक आलोचन प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का स्वरूप भूत, भविष्यत, वर्तमान में जितने पाप जान-अनजान-- मन-वचन-तन, कृत-कारित-मोदन द्वार हुए, हों-होंगे म्लान । उनमें तज ममता समग्रतः करना चिदानंदरसपान । यही वस्तुतः पालोचन है प्रतिक्रमण या प्रत्याख्यान । ( ३८६/३ ) ज्ञान, कर्म और कर्मफल चेतना चिदानंद रस लीन प्रात्म ही ज्ञान चेतना है स्वाधीन । राग द्वेषमय परणति ही है कर्म चेतना सतत मलीन । हर्ष विषाद मयी परणति हो सुख दुख कर्म फलों में वाम । वही कर्मफलमयी चेतना अप्रति बुद्धता का परिणाम । ( ३८६/४ ) चेतनात्रय का शुद्ध और अशुद्ध चेतना में विभाजन कर्म-कर्मफल उभय चेतना है अशुद्ध चेतन के रूप । ज्ञान चेतना ही निश्चय से निविकार शुद्धात्म स्वरूप । राग-द्वेष तज, सुख-दुख में जब जीव न करता हर्ष-विषाद । तब कैवल्य प्राप्त कर पाता चिदानंद का महा प्रसाद ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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