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________________ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार १५४ ( ३८५-३८६ ) आलोचना और चरित्र का स्वरूप वर्तमान उदयावलि में जो कर्म, शुभाशुभ करें प्रवेश । उनमें राग द्वेष नहि करना, पालोचन है यही विशेष । पूर्व कर्म का प्रति क्रमण कर आगामी का प्रत्याख्यान । वर्तमान को समालोचना करना ही चरित्र महान । ( ३८७-३८८ ) दुःख बीज-कर्म और उसका कारण कर्म फलों को वेदन कर जो अपनाता उनको अनजान । दुःख बीज वसुकर्म मयी वह पुनः वपन करता है म्लान । कर्मफलों को वेदन कर जो उन्हें स्वकृत रहता है मान । दुःख बीज वसु कर्म रूप वह भी बो लेता है नादान । ( ३८६/१ ) जीव कर्म फल वेदन कर जब सुखो दुखी हो विसर स्वरूप । तब वसु कर्म बंध करता है, होता जो दुख-बीज विरूप । स्वाधित कर्म निवृत्ति हेतु सुन, उपयोगी संक्षिप्त विधान । जो निश्चय से पालोचन, प्रतिक्रमण और है प्रत्याल्यान । (३८६/१)विकप-सदोष । (३८६/२) समता-पूर्णता । (३८६३) लिनुद्ध-माल ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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