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________________ १४७ समयसार-वैभव ( ३५२ ) यथा शिल्पि अपनी कृतियों के फल स्वरूप धन पाता है । किंतु कभी वह परिवर्तित हो स्वयं न धन बन जाता है । तथा जीव भी पुण्य-पाप मय कर्म बंध कर नित्य नवीन । तत्फल पाता, किन्तु कभी वह स्वयं न फल बन जाय, प्रवीण ! ( ३५३ ) वर्णन यों संक्षिप्त पराश्रित बंधु ! किया व्यवहाराधीन । जिसमें है निमित्त नैमित्तिक भाव-दृष्टि प्राधान्य प्रवीण ! अब निश्चय का कथन सुनो, जो रहकर निज परिणामाधीतम्वाश्रित ही वर्णन करता है, जहाँ पराश्रित दृष्टविलीन । ( ३५४-३५५ ) निश्चय नय से आत्मा स्वय रागी द्वेषी एवं सुखी दुखी होता है (उपादान उपादेय की दृष्टि से) । शिल्पी कर चेष्टाएँ अगणित रहता उनसे सदा अभिन्न । चेष्टमान रागादिक से त्यों जीव नहीं रहता है भिन्न । यथा शिल्पि नाना चेष्टा कर होता स्वयं व्यग्र, नहिं अन्य । त्यों चेतन भी चेष्टमान बन दुख मय परिणत हो तदनन्य । (३५४) व्यप-परेशान, माकुल, व्याकुल। मिति-नीवार।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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