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________________ सर्व विशुद्ध मानाधिकार ( ३४६ ) जीव कर्म को निमित्त दृष्टि से करता होकर भी तन्मय नही होता शिल्पी यथा स्वर्ण से करता विविध भूषणों का निर्माण ; किंतु स्वयं नहि भूषण बनता, शिल्पी-शिल्पी रहे, निदान । त्यों कर्मों का कर्ता चेतन स्वयं न परिणमता बन कर्म । स्वर्णाभूषण वत् पुद्गल ही परिणमता बन कर्म-अकर्म । ( ३५० ) दृष्टांत पुरस्सर उक्त कथन का समर्थन यथा शिल्पि उपकरणों द्वारा भूषण का करता, निर्माण । किन्तु स्वयं उपकरण रूप नहि परिणमता है वह, मतिमान ! तथा करण मन वचन काय से जीव कर्म करता निष्पन्न । किन्तु स्वयं नहि मन वच काया बन करता उनको सम्पन्न । ( ३५१ ) . यथा शिल्पि उपकरण ग्रहण कर भी न उपकरण बने, प्रवीण ! त्यों चेतन यद्यपि योगों से कर्म ग्रहण कर बने मलीन ; किन्तु स्वयं मन वच काया नहिं बन परिणमता है चैतन्य । दोनों ही सत्ता स्वरूप में सदा भिन्न है, अन्य हि अन्य । (३५०) पुरसर सहित । करण-जिसके द्वारा कार्य संपन्न हो ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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