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________________ १०७ समयसार-वैभव ( २३४ ) सम्यकदृष्टि का स्थितिकरणत्व विषय वासनाओं का उरमें आता जब अदम्य तुफान । मानव मन उन्मार्गो बन तब हो जाता है पतित निदान । किंतु सुदृष्टि न विचलित होता किसी प्रलोभन वश स्वाधीन । सुस्थिति करणस्वपर का कर वह कर्म काटता सतत मलीन । ( २३५ ) सम्यक्दृष्टि मे वात्सल्य मक्ति मार्ग में साध त्रय पर रखकर वत्सल भाव नितांत । दर्शन ज्ञान चरण साधन रत वह रहता निश्छल निर्धान्त । प्रात्मधर्म में रुचि-सुदृष्टि का है निश्चय वात्सल्य महान । धर्म-धाममें वत्स वत् सहज प्रेम-भाव व्यवहार प्रमाण । ( २३६ ) सम्यक्दृष्टि की प्रभावना प्रात्म अनन्त शक्ति अनुभव कर विद्यारथ में हो आसीन । ध्यान खङ्ग से प्रात्म विकृति रिपुदल करता जो क्षीण प्रवीण । वही वीर बन स्वात्म प्रभावक नव बंधन का कर अवसान । बद्ध कर्म परिपूर्ण नष्ट कर पाता पद निर्वाण महान । इति निर्जराधिकार :
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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