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________________ निर्जराधिकार १०६ ( २३११२ ) जिन्हें वस्तु धर्मों में होती इष्टानिष्ट कल्पना हीन । उन्हें जुगुप्सा होती, पर की हीन दशाएं निरख मलीन । किन्तु तत्व ज्ञानी न जुगप्सा करता किचित् भी भ्रमहीन । सम भावी बनकर रहता है प्रायः प्रात्म साधना लीन । ( २३२ ) अमूढादृष्टित्व सम्यक्दर्शन के प्रसाद से पाता वह जब दृष्टि नवीन । लोक तथा पाखंडि मढ़ता उसकी होती त्वरित विलीन । नुतन चमत्कार लख जग में मोहित होते मूढ़ महान । किंतु सुदृष्टि कुदेवादिक में होता नहि आकृष्ट सृजान । ( २३३ ) उपगूहनन्त्र प्रतिपल अपने दोष ढूंढ कर उन्हें नष्ट करता है कौन ? एवं पर कृत दोष निरखकर धारण कर रहता है मौन ? वह सुदृष्टि ही है, जो रहता सिद्ध भक्ति रत सतत महान । मिथ्यात्वादि नष्ट कर करता प्रात्मिक गुण विकसित अम्लान । (२३१/२) जुगुप्सा-लानि ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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