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________________ १०३ समयसार-वैभव ( २२३/५ ) उपादान एवं निमित्त है स्वपराश्रित कारण व्यवहार । कार्य बिना संभव नहि होता उभय कारणों का निर्धार । जननी जनक कौन कहलावे हुई न होवे यदि संतान । एवं नियमित परस्पराश्रित है सब कारण कार्य विधान । ( २२३/६ ) जिनका आलंबन लेने से होती कार्य सिद्धि सम्पन्न । उन में भी निमित्त कारणता निरपवाद होती निष्पन्न । जिनवाणी सुन जब होता है भव्य जीवको सम्यक ज्ञानतब वाणी निमित्त कहलाती, उपादान वह व्यक्ति सुजान । ( २२४--२२५ ) अज्ञानी सख हेतु कर्म कर्ता और उसका फल भोगता है इसका दृष्टांत द्वारा समर्थन धन का इच्छुक व्यक्ति नृपति की जब सेवा करता दिनरात । तब प्रसन्न होकर नरपति भी करता उसकी पूरी प्राश । त्यों इंद्रिय सुख भोग प्राप्ति हित जीव कर्म करते अविराम । बँध कर कर्म उन्हें प्रतिफल दें, तत्पश्चात् करे विश्राम । (२२३/५) स्व-जो स्वयं कार्य रूप परिणमन करे वह (उपादन) । पर-जो कार्य रूप परिणमन करते हुए को सहयोगी बन जाय (निमित्त)।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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