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________________ निर्जराधिकार ( २२३/२ ) वस्तु के परिणन मे निमित्त और उपादान का स्पष्टीकरण अभिप्राय यह है कि वस्तु में सर्व परिणमन विविध प्रकार होता निश्चित निज स्वभाव से अन्य न कर सकता सविकार । बाह्य वस्तु होती निमित्त वह, जो परणति में हो अनुकूल । परिणमता जो स्वयं कार्य बन, उपादान करण वह मूल । (२२३/३ ) उपादान एव निमित्त का दृष्टात कार्योत्पादक उपादान-निज, पर-निमित्त-सहयोगी जान । कार्य काल म ही निमित्त वा उपादान का हो परिज्ञान । वैद्य प्रक्रिया कर शीशक जब स्वर्ण रूप परिणमें, नितांतउपादान शीशक रहता तब वैद्यादिक निमित्त संभ्रांत । ( २२३/४ ) यों बाह्याभ्यंतर निमित्त का कार्य काल में हो सद्भाव । कभी कहीं इच्छानुकूल भी मिलजाते वे स्वतः स्वभाव । जब इच्छानुकल मिलते तब अहंकार की होती सृष्टि : अहंकार ममकार न करता किन्तु कभी जो सम्यक्दृष्टि । (२२३/३) शीशक-शीशा (एक धातु)। प्रक्रिया-विशेष रासायनिक विधियां (शीशे को स्वर्ण बनाने की क्रियायें)। (२२३/४) बाह्याभ्यंतर-अंतरंग (भीतरी) और बहिरंग (बाहिरी) सष्टि-रचना, उत्पत्ति ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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