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________________ पुष वायाधिकार toY ( १५७ ) सम्यक्दर्शनादि गुणो मे विकार का कारण सत्ता में प्रात्मस्थ दुष्ट मोहादिकर्मपरिप्रष्ट अशेष । यही आत्म बंधन कारण बन संतापित करते निःशेष । यथा वस्त्र की उज्ज्वलता को मल करता है बंधु ! मलीन । सम्यकदर्शन की प्राभा त्यों । करता है मिथ्यात्व मलीन । ( १५८-१५६ ) उज्ज्वल प्राभा यथा वस्त्र की मल करता है मलिन प्रवीण ! त्यों अज्ञान भाव से होता जीव ज्ञान गुण विकृत मलीन । यथा वस्त्र की उज्ज्वल परणति मल से होती मलिन कुरूप । त्यों कषाय-रंग बनें कषायी रागी द्वेषी जीव विरूप । ( १५६/२ ) कर्मोदय से आत्मगुणों मे विकार होता है-विनाश नहीं दर्शन ज्ञान चरित्र प्रादि गुण नहि समूल हों कभी विनष्ट । बद्ध कर्ममल द्वारा केवल शुद्ध परिणमन होता नष्ट । समकित बन मिथ्यात्व परिणमें, ज्ञान बनें अज्ञान, निदान । वर चरित्र गुण परिणत होता पाप कषाय रूप बन म्लान । (१५७) भात्मस्थ-आत्मा में स्थित-बंधे हुए। (१५८) सरवरित-श्रेष्ठ चरिता
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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