SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इति श्रीग्यानसार संपूर्ण। प्रति-गुटकाकार-पत्र ३०, पं० १७, १० ११, कई पत्र एक तरफ लिखितसाइज ६x६ [ स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] समसार । रचयिता-रामकवि । संवत १७३५ श्रादि सारद गनपति मतिदियन, सिधि बुधि दियन सपूर । कृपाकरछ कीसुनो, ग्रन्थ निवांचे कूर ॥ १ ॥ काल वंचनी कालिका, कुलदेव्या वलि वंड । गुरु गोरधननाथने, फरी बुद्धि की मंड ॥ २ ॥ श्रमरपुरी मी सिवपुरी करम अमर . नरेश । जगतसिंह हीरा भयौ, औरग कसियो जेसु ॥ ३ ॥ जिनके श्रानंदसिंघ भए, धरममूल जसवंत ।. गम कहे अरि दल्न दलन, स्वर्गदानमै-संत ॥ ४ ॥ निनि के विप्र गुपाल मुनि, नाकै है मुत जानि । हरिजी पानीराम पुनि, गहै येद की वानि ॥ ५ ॥ हरिजी के सत प्रग? महि, विप्रराम मतिधाम । यहीं वरन पानन करन, चौसठि बाठी जाम || || निनि बुधि बन्न करिक कथ्यौ, ममैमार निजसार । राम किसन अवतार के समाए कई अपार ॥ ७ ॥ श्रगहन की मुनि अष्ठमी, कर वग्नान रजनीस | सत्रहसे पैतीस भय समेसार निजसार ॥ ८ ॥ कविकोविद परवान' सब, देखें करि सुविचार । राम कहै समझो मौया, समसार निजसार || ६ | रामकिसन अवतार के, समऐ कहै विचारि । राम नाम यात धयौं, समसार निजसार ॥१०॥
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy