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जाको जस सब जगत में, हैं भूपति अनुरूप । arat आनंदराम को, थाप्यौ नृपति अनूप ॥ १ ॥ नाजर आनंदराम को, कौरति चन्द प्रकाश 1 श्राखंड के लोक लगि, परगट कियौ उजास ॥ ७ ॥ घर्यो चित्त हरि मक्ति में, कयौ कृष्ण परनाम । गीता माहातम रख्यौ, भाषा श्रानंदराम ॥ ८ ॥ है यह वेद पुरान ग्रस, सकल शास्त्र को सार । गीता माहातम कर्यो, कृप्या ध्यान उर बार ॥ ६ ॥
गद्य
एक समै सदाशिव कृपा करिकै गीता माहात्म्य पार्वती सु कहत हो । ईश्वरोवाच- पार्वती सुनो, मैं गीता महातम कहतु हो ।
मध्य
अथ नवमाध्याय की महिमा पार्वती मोथे सुनी। नर्मदा के तीर एक माहेष्मती नाम नगरी, तहाँ एक माधव एसे नांव ब्राह्मण बसे । अपने धर्म में सावधान भयो । वेद शास्त्र को वेत्ता, अतिथि को पूजक । तिहिं एक बड़ों जग्य को आरम्भ कयौ | तब जग्य निमित्त मोटौ नीको करो श्रान्यो । तब वह बकरा वध करवै समै इसके, अचरज सी बानी बोल्यौ । हे ब्राह्मनो ! ऐसे विधपूर्वक कीते जग्य को कहा फल है । तातै विनित्यमान है, श्ररु जरा जन्म, मरन इनतै मिटै नहीं। ऐसे जन करतु है मैं पशु जोनि पाई। ऐसे बकरा की बानी सुनकै ब्राह्मन को और ऊचा जाप मंडप में श्रनि मिले । तिनि सबको परम अचरज भयौ ।
अन्त
गीता माहातम सकल, बस्न्यौ श्रानंदराम | सुनत पाप सबही नसे, बहुरि हाय आराम ॥ १३ ॥ लखि परमारथ जगत को, करबौ ग्रन्थ परकास । वरन्यौ आनंदराम नै, यह आनंद विलास ॥ १४ ॥ धारा धरणि इंदु रवि, धरणि धरण समीर 1 गीता माहातम कहौं, ता लगी सुधर सुधीर ॥ १५ ॥ धरनि' रस' नीरधिमयक संमत अगहनमास ।
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कृष्ण पक्ष तिथि त्रयोदशी, वार मोम परकास ॥ १६ ॥